आशियानों को बनाने में वक्त लगता है।
मिटाने वाले चंद लम्हों में मिटाते हैं।।
शाखें वो टूट गईं जिनपे कई घरौंदे थे।
परिंदे आज हवावों में बस चिल्लाते हैं।।
ज़ुल्म हम पर किए क्यों रात के अंधेरे में।
उजड़ गए हैं घरौंदे हम बेसहारा हैं।।
बेजुबाँ हैं तो कैसे बात अपनी बोलेंगे।
कोई तो समझे ये, समझते हम आवारा हैं।।
चोट लगती है जब हमको भी दर्द होता है।
जिसने ये दर्द दिए, सबके सब नकारा हैं।।
काश कोई हमारी दास्तां भी समझेगा।
हम तो पक्षी हैं, जानवर हैं, बेसहारा हैं।।
-राज कुमार दुबे “राज