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क्या शादी का अधिकार भारतीय कानून के तहत मौलिक अधिकार है? परिवार शादी के फैसले का विरोध करे तो वयस्क क्या कर सकते हैं?

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परिचय: भारतीय कानून के तहत विवाह का अधिकार (Right to Marry)

विवाह का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 (Article 21) के तहत एक मौलिक अधिकार (Fundamental Right) है, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) की गारंटी देता है। यह अधिकार वयस्कों को बिना किसी हस्तक्षेप के अपने जीवनसाथी (Spouse) को चुनने की स्वतंत्रता प्रदान करता है, चाहे वह परिवार, समाज या राज्य की ओर से हो।

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सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार इस अधिकार को बनाए रखा है और यह कहा है कि विवाह एक व्यक्तिगत निर्णय है, जिसका सम्मान किया जाना चाहिए क्योंकि यह व्यक्ति की गरिमा (Dignity) और स्वायत्तता (Autonomy) का हिस्सा है।

संवैधानिक प्रावधान (Constitutional Provisions): अनुच्छेद 21 और विवाह का अधिकार

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 हर नागरिक को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है। अपने पसंद के व्यक्ति से विवाह करने का अधिकार इस व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक महत्वपूर्ण पहलू (Aspect) माना गया है।

सुप्रीम कोर्ट ने कई फैसलों में यह स्पष्ट किया है कि दो सहमति से विवाह करने वाले वयस्कों के निर्णय का सम्मान किया जाना चाहिए, चाहे वह जाति (Caste), धर्म (Religion) या सामाजिक मानदंडों (Societal Norms) से भिन्न क्यों न हो। राज्य या समाज इस व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर कोई प्रतिबंध नहीं लगा सकता।

वाह के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण (Supreme Court’s Stand on Right to Marry)

लक्ष्मीबाई चंदरागी बनाम कर्नाटक राज्य (2021) का मामला एक प्रमुख उदाहरण है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने विवाह के अधिकार को बनाए रखा। इस मामले में, कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि दो वयस्कों को विवाह करने के लिए परिवार, समाज या जाति की सहमति (Consent) की आवश्यकता नहीं होती।

कोर्ट ने कहा कि व्यक्ति की पसंद उसकी गरिमा का एक अभिन्न हिस्सा है, और इस पसंद पर कोई प्रतिबंध लगाना व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन है।

इस फैसले में यह भी कहा गया कि “क्लास ऑनर” या “समूह सोच” (Group Thinking) की अवधारणा के आधार पर किसी व्यक्ति की पसंद को कुचलना अस्वीकार्य है।

कोर्ट ने यह भी माना कि विवाह का अधिकार गोपनीयता (Privacy) के अधिकार का हिस्सा है, जैसा कि के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017) के मामले में तय किया गया था, जिसमें यह कहा गया था कि परिवार और विवाह से संबंधित मामलों में व्यक्ति की स्वायत्तता (Autonomy) उसकी गरिमा का हिस्सा है।

जब विवाह का अधिकार नकारा जाए, तो कानूनी उपाय (Legal Remedies When Right to Marry is Denied)

अगर किसी व्यक्ति के विवाह के अधिकार का उल्लंघन किया जाता है, तो भारत में कई कानूनी उपचार (Legal Remedies) उपलब्ध हैं:

1. अनुच्छेद 32 या अनुच्छेद 226 के तहत रिट याचिका (Writ Petition) दायर करना: यदि किसी व्यक्ति को अपने चुने हुए साथी से विवाह करने से अवैध रूप से रोका जाता है, तो वे संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट या अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर कर सकते हैं। यह कानूनी उपाय (Legal Remedy) व्यक्ति को तत्काल सुरक्षा और उनके मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) की गारंटी दिलाने का रास्ता देता है।

2. कोर्ट से सुरक्षा के लिए अपील (Protection): यदि विवाह करने वाले व्यक्तियों को जान-माल का खतरा हो या उनकी स्वतंत्रता पर खतरा हो, तो वे कोर्ट से सुरक्षा की मांग कर सकते हैं। यह बात शफीन जहां बनाम अशोकन के.एम. और अन्य (2018) के मामले में भी सामने आई थी, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने का अधिकार एक मौलिक अधिकार है, और कोर्ट ने उन्हें सामाजिक और पारिवारिक धमकियों से सुरक्षा प्रदान की।

3. धमकी या जबरदस्ती के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई (Criminal Action Against Coercion or Threat): अगर किसी व्यक्ति को उनके विवाह के निर्णय के लिए परिवार या समाज द्वारा धमकाया जाता है या मजबूर किया जाता है, तो वे भारतीय दंड संहिता (IPC) की विभिन्न धाराओं के तहत पुलिस में शिकायत दर्ज कर सकते हैं। यह सुनिश्चित करता है कि उन लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई हो जो विवाह के अधिकार को नकारने का प्रयास कर रहे हैं।

4. जबरन विवाह या ऑनर क्राइम के मामलों में कानूनी सहायता (Legal Recourse for Forced Marriage or Honor Crimes): जब किसी व्यक्ति को उसकी इच्छा के खिलाफ जबरन विवाह (Forced Marriage) में धकेला जाता है या विवाह के कारण हिंसा (Violence) का शिकार बनाया जाता है, तो वे बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 और भारतीय दंड संहिता की संबंधित धाराओं के तहत सुरक्षा पा सकते हैं। इसमें अपहरण, हत्या जैसे अपराधों के खिलाफ कानूनी सहायता प्राप्त की जा सकती है।

विवाह के अधिकार को बनाए रखने में न्यायालय की भूमिका (Role of Courts in Upholding the Right to Marry)

न्यायपालिका (Judiciary) ने विवाह के अधिकार को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कोर्ट ने उन जोड़ों को सुरक्षा प्रदान की है जो धमकियों का सामना कर रहे थे और झूठे मामलों को खारिज (Quashed) कर दिया है।

लक्ष्मीबाई चंदरागी बनाम कर्नाटक राज्य मामले में कोर्ट ने महिला के परिवार द्वारा दर्ज की गई एफआईआर को खारिज करते हुए कहा कि जब दो वयस्क विवाह करने का निर्णय लेते हैं, तो कानून को उनके फैसले का सम्मान करना चाहिए और परिवार द्वारा किया गया कोई भी उत्पीड़न रोका जाना चाहिए।

कई फैसलों में, कोर्ट ने दोहराया है कि जीवन साथी का चयन (Choice of Life Partner) व्यक्ति की गरिमा का हिस्सा है, और कोई भी बाहरी शक्ति, चाहे वह परिवार हो या समाज, इस फैसले को निर्देशित (Dictate) नहीं कर सकती। यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता, गरिमा और स्वायत्तता जैसे संवैधानिक मूल्यों (Constitutional Values) के साथ मेल खाता है।

निष्कर्ष : विवाह के अधिकार का सम्मान

विवाह का अधिकार व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गरिमा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। जब यह अधिकार सामाजिक मानदंडों, पारिवारिक दबाव या अवैध हस्तक्षेप से चुनौती दी जाती है, तो कानूनी व्यवस्था (Legal System) मजबूत उपचार प्रदान करती है।

सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार व्यक्तियों के अधिकार को बनाए रखा है कि वे अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह कर सकें, और किसी भी प्रयास की निंदा (Condemn) की है जो इस स्वतंत्रता को नकारता है।

ऐसे व्यक्ति जो अपने विवाह के अधिकार का सामना कर रहे विरोध से जूझ रहे हैं, उनके पास अपने अधिकारों की रक्षा के लिए कई कानूनी मार्ग (Legal Avenues) उपलब्ध हैं, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता को संवैधानिक ढांचे (Constitutional Framework) के तहत सम्मान दिया जाए।

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