कर्नाटक हाइकोर्ट के जस्टिस एन एस संजय गौड़ा की एकल पीठ ने उमशा टी एन और अन्य बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में रिट याचिका पर निर्णय लेते हुए कहा कि यदि कर्मचारियों का रोजगार आउटसोर्सिंग अनुबंधों के माध्यम से था, जिसका उद्देश्य स्थायी पद स्थापित करना नहीं था तो उन्हें स्थायी दर्जा नहीं दिया जा सकता।
कर्मचारी 27 श्रमिकों का समूह है, जो वर्ष 2000 से तुमकुर में सरकारी प्रिंटिंग प्रेस में बाइंडर और बाद में प्रिंटर के रूप में कार्यरत थे। वर्ष 2016 में तुमकुर में प्रिंटिंग प्रेस को बंद कर दिया गया। बाद में कर्मचारियों को विभिन्न ठेकेदारों के माध्यम से आउटसोर्स आधार पर पीन्या में प्रिंटिंग प्रेस में नियोजित किया गया। शुरुआत में कुल 96 कर्मचारी कार्यरत थे, जिनमें से 50 को समाहित कर लिया गया और बाकी को पीस-रेट के आधार पर जारी रखा गया। कर्मचारियों को लगातार विभिन्न ठेकेदारों के माध्यम से नियोजित किया गया।
कर्मचारियों ने बंद करने तथा बर्खास्तगी को W.P.No.3718/2023 में चुनौती दी। कर्नाटक हाइकोर्ट ने 13.06.2023 को इस याचिका का निपटारा करते हुए राज्य को उनकी दीर्घकालिक सेवा के आधार पर उनके नियमितीकरण पर विचार करने का निर्देश दिया। न्यायालय के निर्देश के बावजूद कर्मचारियों के नियमितीकरण के अनुरोध को प्रतिवादियों ने अस्वीकार किया। इससे व्यथित होकर कर्मचारियों ने रिट याचिका दायर की।
राज्य ने कहा कि कर्मचारियों का रोजगार सरकार और ठेकेदारों के बीच आउटसोर्सिंग अनुबंधों की शर्तों द्वारा शासित था। ये अनुबंध समयबद्ध थे और नवीनीकरण के अधीन थे, जो दर्शाता है कि कर्मचारियों का रोजगार निरंतर या स्थायी नहीं था। उन्होंने आगे दावा किया कि आउटसोर्सिंग अनुबंधों के माध्यम से नियोजित श्रमिकों के रोजगार को नियमित करने के लिए कोई कानूनी दायित्व नहीं था।
न्यायालय ने पाया कि कर्मचारियों को ठेकेदारों के माध्यम से नियुक्त किया गया और वे सीधे सरकारी प्रिंटिंग प्रेस द्वारा नियोजित नहीं थे। न्यायालय ने कहा कि सेवाओं की आउटसोर्सिंग सरकार द्वारा नीतिगत निर्णय था, जिसका उद्देश्य दक्षता में सुधार करना और लागत कम करना था। कर्मचारियों का रोजगार इन अनुबंधों पर आधारित था, जिसका उद्देश्य स्थायी रोजगार संबंध बनाना नहीं था। यह पाया गया कि यह साबित करने के लिए कोई आधिकारिक रिकॉर्ड या दस्तावेज नहीं थे कि कर्मचारी सीधे सरकारी प्रिंटिंग प्रेस द्वारा नियोजित थे।
न्यायालय ने माना कि भर्ती प्रक्रियाओं का पालन किए बिना आकस्मिक या अस्थायी कर्मचारियों को नियमित करना स्थापित कानूनी सिद्धांतों का उल्लंघन होगा। न्यायालय ने सचिव, कर्नाटक राज्य बनाम उमादेवी और अन्य के मामले में दिए गए फैसले का हवाला दिया, जिसमें सार्वजनिक रोजगार के लिए उचित भर्ती प्रक्रियाओं के महत्व पर जोर दिया गया।
न्यायालय ने कहा कि हाईकोर्ट के 13.06.2023 के आदेश में कर्मचारियों के नियमितीकरण पर विचार करने का निर्देश दिया गया, लेकिन इसे अनिवार्य नहीं बनाया गया। सरकार ने कर्मचारियों के दावों पर विचार करके और बाद में कानूनी और तथ्यात्मक परिस्थितियों के आधार पर उन्हें खारिज करके आदेश का अनुपालन किया।
न्यायालय ने माना कि कर्मचारियों को नियमित करने से समान आउटसोर्सिंग अनुबंधों के तहत लगे अन्य कर्मचारियों के साथ असमानता और अन्याय पैदा होगा। न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि कर्मचारी अपने रोजगार के नियमितीकरण के हकदार नहीं थे। हालांकि न्यायालय ने बहाली, नियमितीकरण के बदले मौद्रिक मुआवजा देने के सिद्धांत को अपनाया और सभी 27 कर्मचारियों को 5,00,000 – 6,25,000 रुपये की सीमा में मौद्रिक मुआवजे के रूप में ही राहत प्रदान की, जिसकी गणना 2000 से 2010 की अवधि के लिए दी गई सेवा के प्रत्येक वर्ष के लिए 25,000/- रुपये की राशि और 2016-17 से 2022-23 तक दी गई सेवा के प्रत्येक वर्ष के लिए 50,000/- रुपये की राशि प्रदान करके की गई।
न्यायालय ने रणबीर सिंह बनाम एस. के. रॉय के मामले पर भरोसा किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने लंबे समय से चले आ रहे रोजगार विवादों को बहाली के बजाय मौद्रिक मुआवजे के माध्यम से हल करने पर जोर दिया। खासकर जब विवाद लंबे समय तक जारी रहा हो।
उपरोक्त टिप्पणियों के साथ रिट याचिका का निपटारा किया गया।
केस टाइटल- उमेशा टी एन और अन्य बनाम कर्नाटक राज्य