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माता-पिता की कस्टडी लड़ाई में बच्चा अक्सर अनजाने में शिकार बनता है, कोर्ट को दोनों पक्षों के दावों का मूल्यांकन सावधानी से करना चाहिए: गुजरात हाईकोर्ट

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गुजरात हाईकोर्ट ने हाल ही में एक पिता की उस याचिका खारिज की, जिसमें उन्होंने अपने बच्चे की कस्टडी मांगी थी। कोर्ट ने कहा कि पहले फैमिली कोर्ट में दोनों पक्षों की सहमति से बच्चे की कस्टडी मां को सौंपी गई। मुख्य बिंदु जस्टिस संजीव जे ठाकोर ने कहा कि बच्चों को उनके माता-पिता के प्रेम, देखभाल और सुरक्षा का अधिकार है। कोर्ट को हमेशा बच्चे के हित को सर्वोपरि मानते हुए फैसला करना चाहिए। कोर्ट ने वॉशिंगटन के पूर्व सहायक सचिव वेड हॉर्न के कथन का उल्लेख किया,
“बच्चों को उन फैसलों का शिकार नहीं बनना चाहिए, जो वयस्क उनके लिए करते हैं।” कोर्ट ने माना कि अक्सर माता-पिता के बीच विवादों में बच्चा मानसिक और भावनात्मक रूप से प्रभावित होता है, इसलिए कस्टडी से जुड़े सभी आदेश अस्थायी माने जाने चाहिए, जो समय और परिस्थिति के अनुसार बदले जा सकते हैं। इस मामले में पिता ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 26 के तहत याचिका दायर नहीं की, जो बच्चों की कस्टडी से संबंधित है। बल्कि उन्होंने *गार्डियन एंड वॉर्ड्स एक्ट की धारा 25 के तहत याचिका दायर की, जो इस मामले में लागू नहीं होती, क्योंकि पहले से फैमिली कोर्ट में फैसला हो चुका था।
कोर्ट ने कहा कि अगर पिता को लगता है कि परिस्थितियों में बदलाव हुआ तो उन्हें फैमिली कोर्ट में हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 26 के तहत याचिका दायर करनी चाहिए। इसके अलावा कोर्ट ने यह भी कहा कि जब पति-पत्नी ने आपसी सहमति से तलाक लिया तो उस समय पति ने अपनी मर्जी से बच्चे की कस्टडी के अधिकार से लिखित रूप से किनारा कर लिया था। यह निर्णय न तो किसी दबाव में लिया गया था और न ही धोखे से। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यद्यपि कस्टडी मां को दी गई, यह स्थायी नहीं मानी जा सकती। परंतु जब तक पिता सही प्रक्रिया (धारा 26) के तहत आवेदन नहीं करता, तब तक उन्हें कोई राहत नहीं मिल सकती।

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